Thursday 31 July, 2008

ईदगाह के हामिद पर भारी हैरी पॉटर

बाजारवाद के दौर में कई मील पीछे रह गया साधारण आदमी के मूल्यों का झंडाबदार
-patik awasthi-

आम आदमी के साहित्य केचितेरे प्रेेमचंद्र की एक और जयंती ३१ जुलाई को है। अपनी लेखनी के माध्यम से भारतीय समाज के वास्तविक स्वरूप का चित्रण करने वाले लमही केइस सपूत की विचारधारा आज के समय कितनी प्रासंगिक है। यह बहस का मुद् दा है। 'ईदगाह` जो एक समय सभी प्राइमरी स्कूलों पाठ्य पुस्तकों का हिस्सा थी और आज भी लोगों के जेहन में है या 'नमक का दोरागा` का वह ईमानदार चरित्र और इसकेअतिरि त और न जाने कितनी कालजयी कृतियां के माध्यम से मुंशी जी उस समय के समाज का खाका खींचने की कोशिश की। आज के मोबाइल युग में जीने वाली युवा पीढ़ी शायद ही प्रेमचंद का नाम जानती हो, ज्यादा दिन नहीं हुए जब हैरी पॉटर नाम की किताब के नए संस्करण के इंतजार में बच्चों ने अपने अभिभावकों के साथ पुरी रात दुकानों के बाहर गुजारी थी। प्रेमचंद की द्वारा रचे गए चरित्र वास्तव में कपोल कल्पना नहीं थे बल्कि तत्कालीन समय के समाज से उठाए गए वास्तविक लोग थे। चाहे पुस की रात का 'हल्कू` हो या गोदान का 'होरी और गोबर` का कहीं ने कहीं ये चरित्र आज भी भारतीय समाज के अभिन्न हिस्सा हैं। आज भारतीय मध्यमवर्ग जिन समस्याआेंं से जूझ रहा है। प्रेमचंद केसाहित्य का रूप कहीं न कहीं उससे पूरी तरह इत्तेफाक रखता है। महंगाई, जातिवाद, ब्याजखोरी और न जाने कितनी समस्याआें का केन्द्र रहा प्रेमचंद का साहित्य आज बदले हुए रूप में भारत के मध्यम वर्ग के सामने खड़ा है। जनता उन्हीं सब समस्याआें का सामना कर रही है जिसका चित्रण प्रेमचंद ने अपनी कृ तियों में किया है है। दूर जाने की जरूरत नहीं है टेलीविजन पर आज कल प्रसारित होने वाले विज्ञापन में प्रेमचंद की प्रसिद्ध ईदगाह कहानी पर आधारित विज्ञापन में एक बच्चा अपनी मां के लिए केबिल तार से बने चिमटे का प्रयोग करता है। बताने की जरूरत नहीं की आज के स्वार्थी समाज ने बाजारवाद के दौर में चुपके से प्रेमचंद का भी बाजारीकरण भी कर दिया और हम उस कलात्कता के लिए विज्ञापन निर्माता की प्रशंसा करते रह गए। बस यही शुरू हो जाता है प्रेमचंद के साहित्य का प्रयोग। प्रेमचंद ने उस मिट् टी की खुशबू लोगों तक पहुंचाई जिसको वे मां का दर्जा देते थे पर आज उस मां की बात छोड़िए वास्तविक मां को ही वो सम्मान नहीं मिलता जिसकी वह हकदार होती है। प्रेमचंद जीवन के उस प्रत्येक पहलु पर प्रहार किया है। जो जीवन की छोटी-छोटी खुशियों के लिए उत्तरदायी होते हैं। शायद ही लोगों को अब 'बड़े भाई साहब` कहानी याद होगी। जिसमें भाईयों के बीच चलते असली दंद्वों को दिखाया गया था। ऐसा नहीं है कि प्रेमचंद के साहित्य को आम लोगों तक पहुंचाने की कोशिश नहीं की गई है, अभी ज्यादा दिन नहीं बीते कुछ वर्ष पहले भारत सरकार ने प्रेमचंद की जन्मशती पर दूरदर्शन के माध्यम से मशहूर फिल्मकार गुलजार द्वारा निर्मित कुद काहानियों के संग्रह पर धारावाहिकों का निर्माण किया था । आशा के अनुरूप गुलजार ने अपने बेहतरीन काम से प्रेमचंद की कहानियों को जीवंत रूप प्रदान किया था। लेकिन विश्वास मानिए आज के दौर के केबिल टीवी युग में दूरदर्शन कौन देखता है या फिर बच्चे या देखते हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं। पिछले वर्ष ठीक इसी समय अखबारों में बनारस से खबरें आई थी कि प्रेमचंद के जन्मस्थली लमही में याद में प्रस्तावित स्मारक सरकारी उदासीनता का शिकार हो गया। भारत जैसे देश में इस तरह की घटनाएं सामान्य हैं मगर हम प्रेमचंद की विचारधारा को राजनीति के हवाले नहीं छाे़ड सकते हैं। अगर हम वास्तविकता में अपनी धरोहर को संभालना चाहते हैं तो प्रेमचंद जयंती पर सिर्फ दिखावा नहीं करना होगा बल्कि मुंशी प्रेेमचंद के साहित्य को लोगों के बीच ले जाकर उसके मूल को समझाना होगा । या जिम्मेदार राजनैतिक दलों से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि वहियात मुद् दों पर सड़क से लेकर संसद तक जाम करने दिया जाता है लेकिन प्रेमचंद का साहित्य स्कूली किताबों से गायब होता जा रहा है इस बात को कभी मुद् दा बनाया है। विशेष रूप से आने वाली पीढ़ी को यह बताने की आवश्यकता है कि भारतीय समाज की जटिल संरचना के पीछे उन्हीं जीवन मूल्यों की अहम भूमिका है जिसका पालन मुंशी जी ने जीवन भर अपनी लेखनी के माध्यम से किया। भारतीय हिन्दी साहित्य को जनमानस के बीच लोकप्रिय बनाने का श्रेय काफी हद तक प्रेमचंद को जाता है। हर वर्ष की भांति प्रेमचंद की एक ओर जयंती की तैयारी पूरे देश मेंं मनाए जाने की तैयारी चल रही होगी। इस उत्साह केकोई मायने तब तक नहीं है जब तक आज के बच्चों को प्रेेमचंद के साहित्य के बारे में बताया जा सके। हैरी पॉटर पढ़ने में भी कोई खराबी नहीं है लेकिन हकीकत यह है कि आज हम प्रेमचंद को पूरी तरह से भूल चुके हैं। उनका लिखा साहित्य अमूल्य धरोहर है लेकिन उनके साहित्य के मूल उद् देश्य को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक पहंुचाने की जिम्मेदारी हमारी भी बनती है। तभी हम सही मायने में प्रेमचंद का उचित सम्मान दे पाएंगे।

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